ek ladka ko dekha to aisa laga in Hindi Fiction Stories by Arun Giri books and stories PDF | एक लडका को देखा तो ऐसा लगा

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एक लडका को देखा तो ऐसा लगा

के हर गली, कस्बे और झोपडी मे मुझे ऐसे लोगोको बदनामी, जिल्लत और रुसवाई के सिवा और कुछ नही मिलता । नफरत के निगाहो से देखी जाने वाली ईन “समलैङिगक समुदाय” के लोगोको अपमान बेईजती, तिरस्कार के सिवा, हमारा ये समाज और कुछ नही देता ।
ईस दुनिया मे हमेशा से लोग की धारणये “समलैङिगक समुदाय” के लिए एक अलग सी रही है । हमारे समाज और यहाँ के लोग समलैङिगक लडको को अकसर “खिलौना लडका” समझते है । जिसे हर कोई सिर्फ और सिर्फ उपयोग करना चाहता है । “प्रयोग करके फेक देना” के रुपमे लिऐ जानेवाले “समलैङिगक समुदाय” के लोगो का भावनाए ईच्छाए, खुशी और गम आम लोगो के लिए कोई माएने नही रखती ।
और समाज के अधिकांश लोग एैसे भी होते है जो सिर्फ अपनी हवश मिटाने के लिए ईन लोगो का यौन शोषण करते है । हर कोई सिर्फ ऐसे लोगो अपनी जिस्म की भुख मिटाना चाहता है । मौका मिल्ते ही ये लोग बहती गंगा मे हात धोने से पिछा नही हटते ।
ये कहानी एक एैसे ही समलैङिगक लडके “नाहब” कि है जिसके साथ हुए हर एक हादशा को वो अपनी जुबानी बया किया है र अभी कुछ दिन पहले वा मानसिंक रोगी की सिकायत के चल्ते ईलाज से गुजरा है । और ईसी दौरान वो अपनी जिवन की सारी पिछली घटनाए बताया है ।
ये महज सिर्फ एक कहानी नही थी........
बल्की हमारे समाज की मुखौटे के पिछे छुपी घिनावने चहरे की पुरा सच है... । नाहब ने अपनी पुरी जिन्दगी किताब खोल के रख दी है ।
नाहब ने आगे कहाँ
घर के बिगडते हालात और अम्मी की दिन रात की मजदुरी देख मै पुरी तरह से पढाई से दुर हो चुका था और अब मै पढाई बिच मे ही छोड कर काम करने के लिए फैसला कर चुका था ।
अम्मी ने मुझे एैसा करने और पढाई छोडने के लिए बहुत रोका थ... लेकिन मै नही माना और अपने ही जिद पर अडा रहा । और अन्त मे घरवाले भी मेरी जिड और बहस सुनकर राजी हो गए । हमारे ही गावं के एक दुर के रिश्ते मे मामा लग्न वाले “सरफराज माम” ने मेरे लिए नेपाल के ही “पोखरा” शहर में एक काम की बात की और वहाँ के एक बाडा सा “फर्निचर दुकान“ मे मुझे काम भी दिला दिया ।
सरफराज मामा के वो, फर्निचर दुकान के मालिक चिनजानका आदमी था ईसीलिए वो मुझे आासानी से वहा काम मिल गया ।
अगले दिन मैने अपनी बैग मे सारे कपडे, जरुरी सामान और कुछ पैसे भी बैग मे रख लिया था । जाते वक्त मैने देखा की अम्मीके साथसाथ घरके दाद दादी और मेरा छोटा भाई सब के आखो मे नमी आ गयी थी.... अम्मी ने दुलार से हलवा बना कर टिफिन मे रख दिया था.... और बोली थी की,
“राश्ते मे भुख लगी तो खा लेना, और वहाँ पहुचते ही किसि भी नम्बर से हमे यहाँ खबर कर देना”
उस समय मेरे पास मोबाईल नही था और घर पर सिर्फ एक ही छोटा सा मोबाईल था जिसृ अब्बु ने मौत से पहले अम्मी को खरिद कर दिया था ।
मैने महसुस किया की, अगर मै कुछ देर और यहाँ रुका तो सायद मै भी कमजोर पड जाउगााँ और क्या पता फिर मै ईन सबको छोडकर दुर शहर जा ना सकु ......
यही सोच मे जल्दी से उन सबसे बिदा लिया और बिना पलट कर देखे सिधे बस स्टेन की ओर चल पडा...
सरफराज मामा ने मुझे बताया था की मुझे पोखरा शहर मे उतर कर वहाँ के प्रतिक्षालय मे रुकना है.. वही मुझे उस दुकान के आादमी आ कर सम्पर्क करेंगे ।
मैने पोखरा के लिए बस की टिकट कटाई और बस मे जाकर बैठ गया । बस मे बहुत ज्यादा भीड थी.. तो कै सुरु के सिट पर ही बैठ गया, और फिर कुछ देर बाद ही वो बस पोखरा शहर के लिए रावाना हो गयी ।
मन मे हजारो सवाल थे, कई आशनकाऐ थी, थोडी सी घरबराहट भी थी, यस नए जगह, नयी परिवेश, नये लोग और घर से दुर पहली बाल.... आज मै खुदको अस्थिर महसुस कर रहा था ।
लेकिन ईन सबके बिच मे कही ना कही मन मे मेरे एक उम्मीद थी, एक आत्मबिश्वास और खुद पर भरोसा था की चाहे जिन्दगी मे कितनी भी चुनौतीया क्यु ना आये मै पिच्छे नही हटुगा.... हर मुस्किल हालात का डट के सामाना करुगाँ ।
मै अभी अपने ईसी सोच बिचार मे खोया था की..... मैनै अचानक से महसुस किया कि बस के आगे के सिट पर जहाँ मै बैठा था.. वही पसा खडा बस का वो कन्डक्टर कुछ अजीब से नजरो से मुझे घुरे जा रहा था । मैने पहले तो उसे ईगनोर कर दिया....लेकिन जब बार बार कई मिनटो तक वो मेरे ओर ही ताकता रहाँ तो मैनै ईतराते हुए उस से कहाँ
क्या हुवा भाईसमहब ???? कुछ प्रोबलेम है क्या....????
मेरी बात सुनकर वो अचानक से झल्ला गया और हडबडाते हुए बोला.... नही कुछ नही..
उसके बाद ही मैने नोटिस किया की वो बसका कन्डक्टर मुझे अभी भी चोर नजरो से घुरे जा रहा था
फिर हद तो तब हो गई... जब वो बस के हर हिचकोले पर जान बुझ कर आ के मुझे से टकरा जाता ।
जब भी बस सडकत के उबडे खबडे पर हिलोरे लेता वो कन्डक्टर जानबुझ कर आकर मुझ से चिपक जाता । पहले तो मैने एक दो बार कुछ नही बोला लेकिन जब उसने मेरी चुपीको मेरी मनजुरी समझ कुछ ज्यादा ही मेरे करीब आना चाहाँ तो मैने अचानक से उसपर चिल्ला पडा
“अरे भाई साहब... बस के ग्रील को कस के पकड लो... कही एैसा न हो की बस के अगले हिचकोले के साथ तुम भी उसी सडक पर लुढक जाव..।
मेरे ईतना कहते ही वहाँ के कुछ लोग उस कन्डक्टर पर हस पडे और यसका चेहरा उतर गया । अपनी ईसी बेईज्जतीको उसने सायद अपनी ईगो पर ले लिया और फिर वो हुवा जो नही होना चाहिए था....
अगली बस स्टेन पर बस कुछ देर के लिए रुकी थी। सो मुझे भी बाशरुम ५ मिनेट जाना था। मै बस से उतरा और वही एक पास के एक वाशरुम मे गया
करीब पाँच सातँ मिनेट बाद मै जैसे ही वाशरुम से बाहर निकला मैने देखा की वो बस निकल रही है.....